Bihar board class 10 Sanskrit chapter 1 mangalam

 

1.मङ्गलम्
इस पोस्‍ट में हम दसवीं वर्ग के संस्कृत पियूषम् भाग 2 के पहला पाठ (Manglam Class 10th Sanskrit) “मङ्गलम्” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।
1. मंगलम् (Manglam Class 10th Sanskrit)
पाठ परिचय- इस पाठ (Manglam) में पाँच मन्त्र क्रमशः ईशावास्य, कठ, मुण्डक तथा श्वेताश्वतर नामक उपनिषदों से संकलित है। ये मंगलाचरण के रूप में पठनीय हैं। वैदिकसाहित्य में शुद्ध आध्यात्मिक ग्रन्थों के रूप में उपनिषदों का महत्‍व है। इन्हें पढ़ने से परम सत्‍य (मुख्य शक्ति अर्थात् ईश्वर) के प्रति आदरपूर्ण आस्था या विश्वास उत्पन्न होती है, सत्य के खोज की ओर मन का झुकाव होता है तथा आध्यात्मिक खोज की उत्सुकता होती है। उपनिषदग्रन्थ विभिन्न वेदों से सम्बद्ध हैैं ।

उपनिषदः वैदिकवाङ्मयस्य अन्तिमे भागे दर्शनशास्त्रस्य परमात्मनः महिमा प्रधानतया गीयते। तेन परमात्मना जगत् व्याप्तमनुशासितं चास्ति। स एव सर्वेषां तपसां परमं लक्ष्यम्। अस्मिन् पाठे परमात्मपरा उपनिषदां पद्यात्मकाः पंच मंत्राः संकलिताः सन्ति।

अर्थ– उपनिषद वैदिक साहित्य के अंतिम भाग में दार्शनिक सिद्धांत को प्रकट करते हैं। सब जगह श्रेष्ठ पुरूष परमात्मा की महिमा का प्रधान रूप से गायन हुआ है। उसी परमात्मा से सारा संसार परिपूर्ण और अनुशासित है। सबों की तपस्या का लक्ष्य उसी को प्राप्त करना है। इस पाठ में उस परमात्मा की प्राप्ति हेतु उपनिषद के पाँच मंत्र श्लोक के रूप में संकलित हैं।

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्वम् पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।

अर्थ हे प्रभु ! सत्य का मुख सोने जैसा आवरण से ढ़का हुआ है, सत्य धर्म की प्राप्ति के लिए उस आवरण को हटा दें ।।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘ईशावास्य उपनिषद्‘ से संकलित तथा मङ्गलम पाठ से उद्धृत है। इसमें सत्य के विषय में कहा गया है कि सांसारिक मोह-माया के कारण विद्वान भी उस सत्य की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं, क्योंकि सांसारिक चकाचैंध में वह सत्य इस प्रकार ढ़क जाता है कि मनुष्य जीवन भर अनावश्यक भटकता रहता है। इसलिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु ! उस माया से मन को हटा दो ताकि परमपिता परमेश्वर को प्राप्त कर सके।

अणोरणीयान् महतो महीयान्
आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुरू पश्यति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमानमात्मानः ।।

अर्थ मनुष्य के हृदयरूपी गुफा में अणु से भी छोटा और महान से महान आत्मा विद्यमान है। विद्वान शोक रहित होकर उस श्रेष्ठ परमात्मा को देखता है ।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘कठ‘ उपनिषद् से संकलित तथा ‘मङ्गलम‘ पाठ से उद्धृत है। इसमें आत्मा के स्वरूप तथा निवास के विषय में बताया गया है।विद्वानों का कहना है कि आत्मा मनुष्य के हृदय में सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तथा महान से भी महान रूप में विद्यमान है। जब जीव सांसारिक मोह-माया का त्यागकर हृदय में स्थित आत्मा से साक्षात्कार करता है तब उसकी आत्मा महान परमात्मा में मिल जाती है और जीव सारे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। इसलिए भक्त प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! हमें उस अलौकिक (पवित्र) प्रकाश से आलोकित करो कि हम शोकरहित होकर अपने-आप को उस महान परमात्मा में एकाकार कर सकें।

सत्यमेव जयते नानृतं
सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्‍तकामा
यत्र तत् सत्यस्य परं निधानम् ।।

अर्थ- सत्य की ही जीत होती है, झुठ की नहीेे। सत्य से ही देवलोक का रास्ता प्राप्त होता है। ऋषिलोग देवलोक को प्राप्त करने के लिए उस सत्य को प्राप्त करते हैं । जहाँ सत्य का भण्डार है ।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘मुण्डक‘ उपनिषद् से संकलित तथा ‘मङ्गलम्‘ पाठ से उद्धृत है। इसमें सत्य के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
ऋषियों का संदेश है कि संसार में सत्य की ही जीत होती है, असत्य या झूठ की नहीं। तात्पर्य यह कि ईश्वर की प्राप्ति सत्य की आराधना से होती है, न कि सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबे रहने से होती है। संसार माया है तथा ईश्वर सत्य है। अतः जीव जब तक उस सत्य मार्ग का अनुसरण नहीं करता है तब तक वह सांसारिक मोह-माया में जकड़ा रहता है। इसलिए उस सत्य की प्राप्ति के लिए जीव को सांसारिक मोह-माया से दूर रहनेवाला भाव से कर्म करना चाहिए, क्योंकि सिर्फ ईश्वर ही सत्य है, इसके अतिरिक्त सबकुुछ असत्य है।

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे-
ऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान नामरूपाद् विमुक्तः
परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।

अर्थ- जिस प्रकार नदियाँ बहती हुई अपने नाम और रूप को त्यागकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार विद्वान अपने नाम और रूप को त्यागकर परमपिता परमेश्वर की प्राप्ति करते हैं।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘मुण्डक‘ उपनिषद् से संकलित तथा ‘मङ्गलम‘ पाठ से उद्धृत है। इसमें जीव और आत्मा के बीच संबंध का विवेचन किया गया है।ऋषियों का कहना है कि जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार विद्वान ईश्वर के अलौकिक (पवित्र) प्रकाश में मिलकर जीव योनि से मुक्त हो जाता है। जीव तभी तक माया जाल में लिपटा रहता है जब तक उसे आत्म-ज्ञान नहीं होता है। आत्म-ज्ञान होते ही जीव मुक्ति पा जाता है।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्
आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।

अर्थ मुझे ही महान पुरूष (परमात्मा) जानो, जो प्रकाश स्वरूप में अंधकार के आगे है। उसी को जानकर मृत्यु को प्राप्त किया जाता है। इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अर्थात् आत्मज्ञान के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘श्वेताश्वतर‘ उपनिषद् से संकलित तथा ‘मङ्गलम‘ पाठ से उद्धृत है। इसमें परमपिता परमेश्वर के विषय में कहा गया है।ऋषियों का मानना है कि ईश्वर ही प्रकाश का पुंज है। उन्हीं के भव्य दर्शन से सारा संसार आलोकित होता है। ज्ञानी लोग उस ईश्वर को जानकर सांसारिक विषय-वासनाओं से मुक्ति पाते हैं। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

लघुत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. आत्मा के स्वरूप का वर्णन करें ?
उतर – परमात्मा ने इस संसार की रचना की लेकिन इसका आनंद वे अकेले नहीं ले सकते। इसलिए उन्होंने अपने स्वरूप को आत्माओं में बाँटा। अब जो गुण परमात्मा के थे वे ही आत्मा के बन गए। जो बड़ों से भी बड़ा एवं छोटों से भी छोटा होता है। है। जो जो इस सत्य को समझ लेता है। वह सदा के लिए सुखी हो जाता है।

प्रश्न 2. विद्वान् परमात्मा के पास क्या छोड़कर जाते हैं? अथवा, नदियाँ समुद्र में कैसे मिलती हैं?

उतर – जिस प्रकार बहती हुई नदी अपने अंतिम पड़ाव में समुद्र में मिलकर अपना नाम और रूप छोड़कर विलीन होकर सागरमय हो जाती है उसी प्रकार विद्वान् पुरुष भी अपने रूप और नाम दोनों को छोड़कर परम पिता परमेश्वर के स्वरूप से मिलकर एकाकार हो जाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अहंकार का भाव त्याग देने से अपने लक्ष्य से मिलना आसान हो जाता है।

प्रश्न 3. नदी और विद्वान् में क्या समानता है?

उतर – नदी अपने प्रवाह के अंतिम पड़ाव में जब समुद्र में मिल जाती है तो उसका रूप और नाम समाप्त हो जाता है। उसका स्वरूप सागरमय हो जाता है। उसी प्रकार विद्वान लोग अपने को ब्रह्म में मिलाना चाहता है और इसके लिए प्रयासरत होता है। और जब वह ब्रह्म में मिल जाता है तो वह भी अपने रूप और नाम को त्याग देता है और ब्रह्म में विलीन हो जाता है।

प्रश्न 4. आत्मा का स्वरूप कैसा है, वह कहाँ रहती है?

उतर – कठोपनिषद् में आत्मा के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा की गई है। मानवों के हृदय में आत्मा का स्थान बताया गया जो अणु से भी छोटा और महान् से भी महान् है। जो इसका रहस्य समझता है वह शोकरहित हो जाता है।

प्रश्न 5. ‘मंगलम्’ पाठ के आधार पर सत्य का स्वरूप बतायें।

उतर –मंगलम्’ पाठ में सत्य की अवधारणा के बारे में बताया गया है। सत्य का मुख हिरण्यमय प्रात्र से ढँका हुआ है। सत्य और धर्म की वास्तविक अवस्था के दर्शन हेतु सूर्य से प्रार्थना की गई है कि वे इसे हटा दें। सत्य के रास्ते पर चलने वाला मानव अपने जीवन में व्याप्त सभी शोकों को पार कर जाता है तथा संसार की श्रेष्ठतम अवस्था पाकर अपना जन्म कृतकृत्य कर लेता है।

प्रश्न 6. महान् लोग संसाररूपी सागर को कैसे पार करते हैं ?

उतर – ज्ञानी का जीवन प्रकाशमय और अज्ञानी का जीवन अंधकारमय होता है। जो मनुष्य इस ज्ञान और अज्ञान के बीच के रहस्य को समझ जाते हैं वे मृत्यु के भय से मुक्त हो जाते है एवं इस संसार से ब्रह्म की प्राप्ति कर मुक्त हो जाते हैं। पुनः इस जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते अर्थात् इनकी आत्मा परमात्मा में मिल एकाकार हो जाती है।

प्रश्न 7. विद्वान् मृत्यु को कैसे पराजित करते हैं?

उतर – विद्वान् पुरुष अपनी अल्पज्ञता को स्वीकार कर दूसरों को अधिक ज्ञानी (प्रकाशस्वरूप) मानते हैं तथा इसी विचार को धारण कर मृत्यु को वश में कर लेते हैं क्योंकि मृत्यु को पार करने का अलग मार्ग नहीं है।

प्रश्न 8. ‘मङ्गलम्’ पाठ का पाँच वाक्यों में वर्णन करें।

उतर – वैदिक वाक्य के अंतिम भाग में उपनिषदों का स्थान आता है जिसमें जीवन-दर्शन के सिद्धांतों का निरूपण किया गया है। आत्मा और प्रकृति के संयोग से इस जगत् की उत्पति हुई है। परम ज्ञान की प्राप्ति ही इस जीवन का लक्ष्य है। सत्य के स्वरूप का चिंतन, आत्मा की विशेषता, सत्यमेव जयते, विद्वान् पुरुष का दिव्यलोकगमन तथा परम ज्ञान पाकर मृत्यु को वश में करना आदि इस पाठ के मुख्य विषय हैं। इस पाठ के माध्यम से उपनिषदों में आदर्श जीवनशैली का वर्णन किया गया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न 

1. मङ्गलम् पाठ कहाँ से संकलित है?

(A) वेद से          (B) पुराण में

(C) उपनिषद् से   (D) वेदाङ्ग से

2. महान से भी महान क्या है?
(A) आत्मा     (B) देवता
(C) ऋषि       (D) दानव

 

Sanskrit chapter 1

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