अध्याय:- 01 फसल : उत्पादन एवंं प्रबंधन |
इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड भौतिकी कक्षा 8 पाठ 1फसल : उत्पादन एवंं प्रबंधन के बारे में विस्तार से बतलाएंगे।यदि हमलोग द्वारा दी गए जानकारी अच्छी लगे तो अपने दोस्तो के पास अवश्य शेयर करे। मैं विक्रांत कुमार और मेरी टीम(the guide academic)आप लोगों की सहायता के लिए हमेशा तात्पर है।
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Board |
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Textbook | NCERT |
Class | Class 8 |
Subject | Science |
Chapter no. | Chapter 1 |
Chapter Name | फसल : उत्पादन एवंं प्रबंधन |
Category | Class 8 Science Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
अध्याय:- 01 फसल : उत्पादन एवंं प्रबंधन |
Introduction:- पृथ्वी पर एक विशाल जनसंख्या में जीव रहती है, जिसको भोजन की आवश्यकता है। भोजन से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग जीव अपनी विभिन्न जीवन प्रक्रियाओं जैसे पाचन, श्वसन और उत्सर्जन को पूरा करने के लिए करता है।
फसल (Crops):- किसी स्थान पर जब बड़े पैमाने पर एक ही किस्म के पौधे उगाये जाते हैं, तो उसे फसल कहते हैं।जैसे गेहूँ का फसल, धान का फसल, आलू की फसल, गोभी का फसल इत्यादि।
फसलों का वर्गीकरण : भारत एक बहुत विशाल तथा विविधताओं (भारत का एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्र से बिल्कुल भिन्न है) वाला देश है। कहीं की जलवायु काफी ठंढ़ी है, तो कहीं काफी गर्मी होती है। भारत के कुछ स्थान पठारी हैं। अतः देश के विभिन्न भागों में विविध प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं। फसलों को उनके उगाने के मौसम के आधार पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है:
1.खरीफ फसल :- वर्षा ऋतु में लगाये जाने वाले फसलों को खरीफ फसल कहा जाता है। जैसे धान, मक्का, सोयाबीन, कपास आदि खरीफ फसलें हैं। भारत में वर्षाऋतु सामान्यतः जून से सितम्बर तक होती है। अतः खरीफ के अंतर्गत वे फसलें आती हैं जिन्हें पानी की काफी आवश्यकता होती है।
2. रबी फसल : फसलें जिन्हें शी जाड़ा अर्थात अक्टूबर से मार्च तक में उगाई जाती है, रबी फसल कहलाती है। शीत ऋतु में वे हीं फसलें उगाई जाती है जिन्हें कम तापमान तथा कम पानी की आवश्यकता होती है। जैसे गेहूँ, चना, मटर,सरसों आदि।
3.जायद फसलें:- गर्मी के मौसम में उगाई जाने वाली फसलें जायद फसलें कहलाती है। मूंग, तरबूज, खीरा, ककड़ी, लोकी ओर करेला जायद फसलों के उदाहरण हैं। इस वर्ग की फसलों में तेज गर्मी और शुष्क हवाएँ सहन करने की अच्छी क्षमता होती हैं। यह फसलें मुख्य रूप से मार्च में बोई जाती हैं और जून में काटी जाती हैं।
कृषि पद्धतियां :- फसल को उगाने से लेकर तैयार करने और भंडारण तक किये जाने वाले कार्यों को फसल पद्धतियां या कृषि पद्धतियां कहलाती हैं। चूंकि ये कार्य सभी प्रकार के फसलों के लिए किए जाते हैं, अतः इन्हें आधारिक कृषि पद्धतियाँ या आधारिक फसल पद्धतियाँ कहलाती हैं। जो निम्न प्रकार हैं-
- मिट्टी तैयार करना
- बुआई
- खाद एवं उर्वरक देना
- सिंचाई
- खरपतवार से सुरक्षा
- कटाई
- भण्डारण
1.मिट्टी तैयार करना (Soil Preparation):- खेती के लिए सबसे पहले मिट्टी को तैयार करना होता है। मिट्टीकी तैयारी को खेत की जुताई कहते हैं। जुताई में खेत की मिट्टी को खोदकर ढ़ीला अर्थात भुरभुरा करना होता है खेत को जोतने से मिट्टी ढीली तथा भुरभुरी हो जाती है। जुताई में अवांछनीय पौधे जैसे कि खर पतवार आदि जड़ से उखाड़ जाते हैं। मिट्टी को दीला करने से फसल के पौधों की जड़े आसानी से गहराई तक जा सकती हैं तथा जड़े बस्तता से श्सन, अवशोषण कर सकती है।
केंचुएं मिट्टी में पाए जानेवाले पौधों तथा जंतुओं के मृत अवशेषों का अपघटन करते हैं जिससे मिट्टी मुलायम एवम भुरभुरी हो जाती है तथा ह्यूमस (humus) का निर्माण करते हैं। ह्यूमस पौधों को पोषक तत्व तत्व प्रदान करता है। पोली मिट्टी में वायु का संचार होता हे जिससे पोधों की जड़े श्वसन करती हैं। इसलिए केंचुआ को किसानों का मित्र (friends of farmers) भी कहते है।
ह्यूमस (humus):- ह्यूमस-सूखी पत्तियों,फलों,बीजों, शाखाओं व मृत जीवधारियों के शरीर के अपघटन से गहरे भूरे या काले रंग का एक पदार्थ बनता है, जिसे हयूमस कहते है।इसमें वनस्पति पेड़-पौधों के लिए सभी आवश्यक पोषक पदार्थ पाए जाते हैं। ह्यूमस का उपयोग भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए किया जाता है। ह्यूमस मृदा को छिद्रमय बनाता है, जिसके कारण मृदा में वायु और जल को धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है।
मिट्टी की जुताई करने के लिय उपयोग में लायजाने वाले कृषि औजार
खेत जुताई करने के लिए परम्परागत (पुराना) तथा आधुनिक दोनों प्रकार के उपकरण का उपयोग किया जाता है। इन उपकरणों में हाल कुदाल एवं कल्टीवेटर आदि प्रमुख हैं।
- (A) हल:- हल जुताई का एक परम्परागत उपकरण है। हल का उपयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। हल मुख्य रूप से लकड़ी का बना होता है। हल के निचले सिरे पर लोहे का एक तिकोना ब्लेड लगा होता है, जिसे फाल कहते है। तथा एक लम्बा लकड़ी का सिरा, जिसे हल शाफ्ट कहते हैं, लगा होता है। हल को दो बैलों तक एक आदमी की मदद से चलाया जाता है। बैलों के द्वारा खींचे जाने पर फाल (लोहे का ब्लेड) मिट्टी को खुरचकर पलटने लगता है। तथा इस तरह धीरे धीरे पूरे खेत की जुताई की जाती है।
- (B) कुदाली :- कुदाली हल की तरह ही लोहे का एक उपकरण है, जिसमें फाल (लोहे का ब्लेड) तथा एक हॅडल लगा होता है। हैंडल लोहे या लकड़ी की होती है। कुदाली का उपयोग भी खेत को जोतने खुरचने तथा खरपतवार। लिए किया जाता है।
- (C) कल्टीवेटर:- कल्टीवेटर लोहे का एक उपकरण है। इसमें हल के फाल की तरह कई ब्लेड लगा होता है। कल्टीवेटर को ट्रैक्टर से जोड़कर खेत की जुटाए की जाती है।चूंकि कल्टीवेटर में कई ब्लेड होता है, तथा ट्रैक्टर की मदद से यह तेजी से चल सकता है,अतः कल्टीवेटर तथा ट्रैक्टर से कम समय में अधिक खेत की जुताई की जाती है।
2.बुआई (Sowing):- बीजों को मिट्टी में डालकर मिट्टी की एक परत से ढकना बुआई कहलाती है। या दूसरे शब्द में फसल से बीजों को मिट्टी में प्रत्यारोपित करना बुआई कहलाती है।
⇒ बुआई में महत्वपूर्ण बातें :-
- अच्छे बीजों का चयन
- बीजों को मिट्टी से ढ़का जाना
- बीजों को मिट्टी में समान तथा पर्याप्त दूरी पर बोया जाना
⇒ बुआई के तरीके :-
(A) हाथ से बुआई / छिटकाव विधि: यह एक प्रकार की साधारण विधि है। जिस में बीज को हाथों द्वारा खेत में कुछ उचाई में दूर तक फैलाया जाता है। छिटकाव विधि कहते है। इस विधि में कुछ बीजों, जैसे गेहूँ, धान बाजरा आदि के बीजों को हाथ से छींटा मारकर बुआई की जाती है।
(B) सीड ड्रिल विधि: सीड ड्रिल विधि बुआई कि सबसे उत्तम विधि है इसमें सीड ड्रिल मशीन द्वान बीज एक समान दूरी पर बोए जाते है इस विधि द्वारा बीज की कम मात्रा लगती है तथा फसल का उत्पादन अच्छा होता हैं।
- परंपरागत सीड डिल:- परंपरागत रूप से बीजों को कीप के आकार के औजार की सहायता से बआई की जाती है। इस यंत्र में एक लम्बी नली जिसका दो या तीन नलियों में बंटा होता है। उपर में कीप लगा होता है। इस यंत्र को हल के साथ जोड़ दिया जाता है। कीप में बीज डाला जाता है तथा उसे हल के साथ बैलों की सहायता से चलाया जाता है। बीज कीप से होकर नीचे लगी नलियों की सहायता से दो से तीन भागों में बंटकर जमीन में थोड़ी गहराई तका चली जाती है, तथा मिट्टी से ढक दी जाती है।
- आधुनिक सीड ड्रिल:- यह बुआई का एक आधुनिक औजार है। यह यंत्र ट्रैक्टर के हल के साथ ही जुड़ा होता है। इसमें उपर एक मोटा बैरल लगा होता है जो नीचे जाकर प्रत्येक हल के साथ नलियों की सहायता से जुड़ा होता है। उपर बेरल में बीज डाल दिया जाता है। ट्रैक्टर से साथ जोड़ने पर बीज नलियों की सहायता से प्रत्येक हल के साथ समान तथा पर्याप्त दूरी पर जमीन में प्रत्यारोपित हो जाता है।सीड ड्रिल की सहायता से कम समय में अधिक खेतों में बुआई की जाती है। इस यंत्र की सहायता से श्रम तथा समय दोनों की बचत होती है।
(3) खाद एवं उर्वरक मिलाना (Adding Manure and Fertilisers ):- पौधों को मिट्टी से आवश्यक खनिज प्राप्त होता है, जो कि पौधों के पोषण के लिए आवश्यक है। खेत में लगातार पौधे उगाने के कारण खेतों में आवश्यक खनिजों की कमी हो जाती है। आवश्यक खनिजों की कमी के कारण पौधों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है और फसल अच्छा नहीं होता है। इन आवश्यक खनिजों की पूर्ति के लिए खेतों में खाद तथा उर्वरक मिलाया जाता है।
- खाद (Manure) : प्राकृतिक रूप से तैयार किया गया पदार्थ जो खेत की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है, को प्रायः खाद कहा जाता है। चूँकि खाद प्राकृतिक में मिलने वाले पदार्थों जैसे गोबर, मानव अपशिष्ट एवं पौधों के अवशेष के विघटन से प्राप्त होता है। अतः इन्हें कार्बनिक खाद कहा जाता है।
खाद प्रयोग के लाभ –
- यह मिट्टी के संरचना अर्थात गुणवत्ता को ठीक करता है।
- यह मिट्टी के जलधारण क्षमता को बढ़ाता है।
- यह मिट्टी को बंजर होने से बचाता है।
खाद के दोष
- इसका रखरखाव सुविधाजनक नहीं होता है।
- यह पौधों के वृद्धि और विकास में धीरे-धीरे वृद्धि लाता है।
उर्वरक (fertilizer): कृत्रिम रूप से प्रयोगशालाओं में तैयार किया गया पदार्थ जिसे खेतों की उर्वरक शक्ति को बढ़ाने के लिये उपयोग में लाया जाता है को प्रायः उर्वरक कहते हैं। उर्वरक को कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है, अतः उर्वरक अकार्बनिक कहलाते हैं।
जैसे:- यूरिया, अमोनियम सल्फेट, सुपर फॉस्फेट, पोटाश, NKP (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस ,पोटेशियम) आदि प्रयोगशालाओं में कृत्रिम रूप से तैयार किये गये उर्वरक हैं।
उर्वरक प्रयोग के लाभ-
- यह पौधों पर अपना प्रभाव तेजी से उत्पन्न करता है।
- इसका रखरखाव तथा यातायात की सुविधा-जनक होता है।
- यह खाद की तुलना में कम मात्रा में उपयोग किया जाता है।
उर्वरक के दोष
- इसका अत्यधिक उपयोग से मिट्टी की गुणवत में ह्रास होती है।
- यह मिट्टी के जलधारण क्षमता को घटता है।
- इसका अत्यधिक और लगातार उपयोग ऐसे भूमि बंजर हो जाता है।
उर्वरकता बढाने के अन्य तरीके :-
(A) दो फसल के बीच खेत को खाली छोड़ना: लगातार फसल उगाये जाने से भी खेतों में आवश्यक खनिज पदार्थों की कमी हो जाती है। अतः दो फसलों के बीच खेत को खाली छोड़ देने से प्राकृतिक रूप से खेत की उर्वरक क्षमता बढ़ जाती है।
(B) फसल चक्रण: किसी खेत में फसलों को अदल बदल (हेर-फेर कर बोना फसल चक्र (crop rotation)कहलाता है। ऐसा करने से मृदा की उर्वरा शक्ति बनी रहती है और पैदावार अच्छी होती है।
जैसे:- धान→ मटर→ गन्ना, मूंगफली →अरहर → गन्ना
फसल चक्र के लाभ:-
- इससे मिट्टी की उर्वरता कामयाब रहती है।
- इसको अपनाने से उर्वरक की आवश्यकता कम पड़ती है।
- इससे खरपतवार पर नियंत्रण पाना आसान रहता है।
- इससे मिट्टी के संरचना में सुधार का मौका मिलता है।
- इससे पीड़कों (कीड़े-मकोड़े) के नियंत्रण में भी सहायता मिलता है।
(4) सिंचाई (Irrigation): फसल के वृद्धि और विकास के लिए समय से जल की पूर्ति करना सिंचाई कहलाता है।
सिंचाई के श्रोत :- वर्षा, नदी, झील, तालाब, नहर, कुएँ, नलकूप इत्यादि सिंचाई के श्रोत है। नदी,झील आदि सिंचाई के प्राकृतिक तथा नहर, कुएँ, नलकूप इत्यादि सिंचाई के कृत्रिम श्रोत हैं।
सिंचाई के तरीके :-
1. सिंचाई के पारंपरिक तरीके: मोट (घिरनी), रहत, वे ती आदि सिंचाई के कुछ पारंपरिक तरीके हैं।
- मोट (घिरनी): कुँए से एक रस्सी तथा घिरनी की मदद निकासी कर खेतों में पहुँचाया जाता है। इस विधि को मोट (घिरनी) कहा जाता है।
- चेन पम्प : चेन पम्प में एक बड़ी घिरनी पर रस्सी या चेन की सहायता से कुँए या झील आदि से जल की निकासी की जाती है। चेन पम्प को मनुष्य या मवेशी जी की मदद से चलाया जाता है।
- रहट: रहट प्रायः मवेशी यथा वेल या भैंस या अन्य मवेशी की मदद से चलाया जाता है। रहट का उपयोग कर कुँए या बड़े गड्ढे से जल की निकासी कर खेतों तक पहुँचाया जाता है।
- ढेकली: टेकली की मदद से छोटे राड्ढ़ों नदियों या तालाब से जल की निकासी की जाती है तथा छोटी छोटी नालियों द्वारा खेतों तक पहुंचाया जाता है। देकली को मनुष्य द्वारा चलाया जाता है। देकली को बहुत सारे क्षेत्र में किरान भी कहा है।
2. सिंचाई के आधुनिक तरीके:- पारंपरिक तरीके से सिंचाई में अधिक समय तथा मेहनत की आवश्यकता होती है, इसके बाबजूद भी इन पारंपरिक तरीकों से कम भूमि की ही सिंचाई संभव हो पाती है। इसी कारण से सिंचाई के आधुनिक तरीके अपनाये जाते
जैसे :- मोटर पम्प, छिड़काव तंत्र, डिप तंत्र आदि का उपयोग सिंचाई के आधुनिक तरीकों में आता है।
मोटर पम्पः मोटर पम्प को प्रायः कुँए, नलकूप आदि में स्थापित किया जाता है। मोटर पम्प को बिजली या डीजल ईंजन से चलाया जाता है। मोटर पम्प की मदद से कम समय, मेहनत तथा लागत में अधिक भूमि की सिंचाई की जाती है।
छिड़काव तंत्रः इस विधि में उर्ध्व पाइपों में नोजल लगे होते हैं। ये उर्ध्व पाइप एक मुख्य पाईप से जुड़े होते हैं जिसमें मोटर पम्प की सहायता से जल को भेजा जाता है। जल को पाइपों में भेजने पर उनमें लगे नोजल घूमते हुए बर्षा की तरह जल का छिड़काव करता है। इस छिड़काव तंत्र की विधि में जल की बचत के साथ साथ अधिक दूरी तक जल को पहुँचाया जाता है। छिड़काव तंत्र का उपयोग प्रायः असमतल तथा बलूही भूमि में सिंचाई के लिए किया जाता है जहाँ नालियों की मदद से जल को पहुँचाना संभव नहीं होता है।
ड्रिप तंत्र : ड्रिप तंत्र को अंग्रेजी में ड्रिप सिस्टम (Drip System) कहा जाता है। ड्रिप तंत्र में जल को मोटर पम्प की मदद से पाइपों में भेजा जाता है। इस ड्रिप तंत्र की विधि में जल बूँद बूँद कर पौधों पर गिरता है। फलदार पौधे बगीचे आदि के लिए ड्रिप तंत्र से सिंचाई किया जाना अत्यंत ही उपयोगी है। इस ड्रिप तंत्र से सिंचाई में जल की बबर्बादी बिल्कुल नहीं होती है।
(5) खरपतवार से सुरक्षा:- खेतों से अवांछित पौधों (Weeds) को हटाया जाना खरपतवार से सुरक्षा है। खेतों के अवांछित पौधों को अंग्रेजी में वीडस (Weeds) कहते हैं। ये अवांछित पोधे (खरपतवार) भी जीवित रहने के लिए खेतों से पोषण प्राप्त करते हैं जिसके कारण फसलों को पूरा पोषण नहीं मिल पाता है, जिससे फसल अच्छा नहीं हो पाते हैं।बहुत सारे खरपतवार विषैले भी होते हैं। अतः खेतों इन आवांछित पौधों को हटाना आवश्यक हो जाता है।
खरपतवार से सुरक्षा के तरीके :- खरपतवार को हटाने को निराई कहा जाता है।
- फसल को उगाने से पहले खेत को अच्छी तरह जीतने पर खरपतवार जड़ सहित उखड़ जाते हैं तथा मर जाते हैं।मरने के बाद वे विघटित होकर मिट्टी में मिल जाते हैं जो खेत की उर्वरा शक्ति को भी बढ़ाता है।
- खरपतवार को फसल के उगने के बाद हाथ तथा खुरपी आदि की मदद से उखाड़ दिया जाता है।
- खरपतवार को हटाने के लिए खरपतवार नाशी का प्रयोग किया जाता है। खरपतवार नाशी एक प्रकार की रासायनिक दवा होती है। जिसका छिड़काव फसल पर किया जाता है। छिड़काव से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं, इससे फसलों को हानि नहीं पहुंचती हैं।जैसे :- 2, 4D इथाइल इस्टर, ग्लाईफॉस्फेट आदि कुछ प्रचलित खरपतवार नाशी (Weedicides) है।
(6) कटाई (Harvesting):- जब खेतों में खड़ी फसल पककर तैयार हो जाती. है तो इसे काटना कटाई कहलाता है। कटाई की प्रक्रिया में या तो पौधों को खींचकर उखाड़ लेते हैं या उसे धरातल के निकट से काट लेते हैं। फसलों की कटाई के लिए उपयोग किए जाने वाले उपकरणों के नाम है- हंसिया या दराँती (Sickle) तथा हार्वेस्टर। हमारे देश में आज भी फसलों की कटाई अधिकतर हंसिये तथा दराँती द्वारा की जाती है। फसलों की कटाई के लिए हार्वेस्टर नामक फसल काटने के यन्त्र का उपयोग भी धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है।
(7) भण्डारण (Storage):- फसल के दानों को अधिक समय तक सुरक्षित रखने के लिए उन्हें नमी, कीट, चूहों तथा सूक्ष्मजीवों से बचा कर सुरक्षित रखना भण्डारण कहलाता है।
साईलो :- बड़े पैमाने पर फसल का भंडारण साईलो और भंडार गृहों में किया जता है। भण्डारण से पहले फसल के दानों में कीटनाशक आदि भी मिलाया जाता है। कीटनाशक एक रासायनिक दवा है, जो फसल को कीटों, चूहों आदि से बचाकर रखता है।
जंतुओं से भोजन :- बहुत सारे खाद्य पदार्थ हमें जंतुओं से प्राप्त होता है। जैसे माँस, मछली, अंडे, दूध, घी आदि।
- बकरी, भेड़, खरगोश, भेड़, मछली आदि से हमें माँस प्राप्त होता है। माँस प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्वों से परिपूर्ण खाद्य पदार्थ है।
- गाय, भैंस, भेड़, ऊँट आदि से हमें दूध प्राप्त होता है। दूध से अन्य बहुत सारे खाद्य पदार्थ जैसे दही, मिठाई, घी आदि बनते हैं।
- मुर्गी का पालन अंडे तथा माँस प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इन खाद्य देने वाले पशुओं को घरेलू स्तर पर तथा बड़े स्तर पर पालन किया जाता है।
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